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ऊ॒र्जो नपा॑तमध्व॒रे दी॑दि॒वांस॒मुप॒ द्यवि॑। अ॒ग्निमी॑ळे क॒विक्र॑तुम्॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

ūrjo napātam adhvare dīdivāṁsam upa dyavi | agnim īḻe kavikratum ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ऊ॒र्जः। नपा॑तम्। अ॒ध्व॒रे। दी॒दि॒ऽवांस॑म्। उप॑। द्यवि॑। अ॒ग्निम्। ई॒ळे॒। क॒विऽक्र॑तुम्॥

ऋग्वेद » मण्डल:3» सूक्त:27» मन्त्र:12 | अष्टक:3» अध्याय:1» वर्ग:30» मन्त्र:2 | मण्डल:3» अनुवाक:2» मन्त्र:12


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे मनुष्यो ! जिसको (द्यवि) प्रकाश तथा (अध्वरे) मेल को प्राप्त संसार में (अग्निम्) अग्नि के सदृश तेजयुक्त (ऊर्जः) बल से (नपातम्) विनाशरहित (कविक्रतुम्) विद्वानों की बुद्धि वा कर्म को यज्ञ समझनेवाला (दीदिवांसम्) प्रकाशमान विद्वान् पुरुष के (उप) समीप (ईळे) स्तुति करता हूँ, वैसे इसकी आप लोग भी प्रशंसा करो ॥१२॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे यज्ञ में अग्नि प्रकाशमान होकर शोभित होता है, वैसे ही विद्या के प्रकाशकर्त्ता व्यवहार में विद्वान् जन प्रकाशित होते हैं ॥१२॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे मनुष्या यं द्यव्यध्वरेऽग्निमिव वर्त्तमानमूर्जो नपातं कविक्रतुं दीदिवांसं विद्वांसमुपेळे तथैतं यूयमपि प्रशंसत ॥१२॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ऊर्जः) बलात् (नपातम्) विनाशरहितम् (अध्वरे) सङ्गते संसारे (दीदिवांसम्) प्रदीप्यमानम् (उप) (द्यवि) प्रकाशे (अग्निम्) वह्निवद् वर्त्तमानम् (ईळे) स्तौमि (कविक्रतुम्) कवीनां विदुषां क्रतुः प्रज्ञा कर्म वा क्रतुवत् यस्य सः तम् ॥१२॥
भावार्थभाषाः - अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा यज्ञेऽग्निः प्रकाशमानो विराजते तथैव विद्याप्रकाशके व्यवहारे विद्वांसः प्रकाशन्ते ॥१२॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा यज्ञात अग्नी प्रकाशमान होऊन शोभतो तसेच विद्येचा प्रकाश करणाऱ्या व्यवहारात विद्वान लोक प्रकाशित होतात. ॥ १२ ॥